Saturday, October 14, 2006

Inspired by listening to old nostalgic Ghazal records

फुर्सत के दिन

वोह गरजते पानी के छींटे
वोह कीचड में सने दिन
वोह छोटी कागज कि कश्तियां
वोह हर पल डूबता सूरज, पूरब से पश्छिम

वोह सर्द हवाओं के झोंकय
वोह दोस्तो कि किलकारियाँ
वोह गिरकर उठकर भागना,
वोह माँ का डांटना हर दिन

मुट्ठी में रेत सा खिसकता वक़्त
काश! तभी ठहर जाता
काश! कुच्छ रेत मई अपनी जेब में भर पाता
रूक जता शायद वोह समय वोह पल-छीन

पलट कर देखता हूँ मैं
पर शायद कई मोड़ गुज़र चुके हैं तब से अब तक
ढूँढता हूँ फिर भी मैं उन्हें,
जाने कहाँ गए वोह फुर्सत के दिन

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