Monday, November 27, 2006

A political satire on re-elections

गिर पडी सरकार

गिर पडी सत्ता और एक बार,
जनता के मत्थे मधेगी एक नयी सरकार
फिर आया नेताओं का बहाव
देश में केवल इनका नही है आभाव
नज़र आये सारे लल्लू एक अर्से के बाद
सब मिल आये हैं करने देश को बर्बाद

बडे और झूठे आश्वाशन अब भी हैं
पिच्च्ले वादे पुरे नही हुए तो क्या?
वादों में टेल और राशन अब भी हैं
जनता पिच्च्ली बार सो गयी तो क्या?
लंबे-लंबे भाषण अब भी हैं
पाण्डवों का युग गया तो क्या?
खेमे में शकुनी और दुश्शाशन अब भी हैं.

निकलेंगी फिर से रैल्लियाँ, मंडराएँगे चमचे
उतर आएंगे धुरंदर नीचे, मांगेंगे वोट हमसे
चुनाव चिनंह लक्ष्मी और उनका वाहन नेता है
राजनीती के खेल में जनता मूक दर्शक, लीडर निर्देशक, कैशिएर, अभिनेता है

सोचता हूँ इस बार वोट मैं भी दाल दूं
रैली में बात ते नोट कुच्छ मई भी संभाल लूं
और अगर राजनीती नही होती तो देश के नित्ठालों का क्या होता?
पासवान चबाता खैनी नुक्कड़ पर, लालू तबेले में लगा होता
फिर भी नेता तो आख़िर नेता है, वोह भी खुदा का एक बन्दा है
आख़िर तो भी बेचारा क्या करे, यही तो उसका धंदा है.