फुर्सत के दिन
वोह गरजते पानी के छींटे
वोह कीचड में सने दिन
वोह छोटी कागज कि कश्तियां
वोह हर पल डूबता सूरज, पूरब से पश्छिम
वोह सर्द हवाओं के झोंकय
वोह दोस्तो कि किलकारियाँ
वोह गिरकर उठकर भागना,
वोह माँ का डांटना हर दिन
मुट्ठी में रेत सा खिसकता वक़्त
काश! तभी ठहर जाता
काश! कुच्छ रेत मई अपनी जेब में भर पाता
रूक जता शायद वोह समय वोह पल-छीन
पलट कर देखता हूँ मैं
पर शायद कई मोड़ गुज़र चुके हैं तब से अब तक
ढूँढता हूँ फिर भी मैं उन्हें,
जाने कहाँ गए वोह फुर्सत के दिन
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